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पेरेंट्स पूरी कोशिश करते हैं कि उनके बच्चे के विकास, पोषण व परवरिश में किसी तरह कोई कमी न रहे। इन सबके लिए भरसक प्रयास करने के बाद बच्चे का अजीब बर्ताव देखकर माता-पिता यह नहीं समझ पाते कि उनके बच्चे के दिमाग में क्या चलता रहता है। अगर आप भी बच्चे के दिमाग को समझना चाह रहे हैं, तो बच्चों की साइकोलॉजी का सहारा ले सकते हैं। मॉमजंक्शन आपको बताएगा कि बाल मनोविज्ञान क्या है और बच्चों की साइकोलॉजी समझना क्यों जरूरी है। बस इस लेख में हमारे साथ अंत तक बने रहें।
सबसे पहल पढ़ें कि बाल मनोविज्ञान क्या है।
बाल मनोविज्ञान क्या है?
बाल मनोविज्ञान एक अध्ययन का क्षेत्र व विषय है। यह बच्चे के मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और व्यवहारिक विकास से जुड़ा है। बाल मनोविज्ञान से पेरेंट्स व परिवार के सदस्य को बच्चे के स्वाभाव के साथ तालमेल बैठाना व उसके व्यवहार पर प्रतिक्रिया करने जैसी चीजें सीखने में मदद मिलती है (1)।
सीडीसी (सेंट्रर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) पर दी गई जानकारी के अनुसार, बच्चों की मानसिक, व्यवहारिक, सामाजिक व संज्ञानात्मक स्थितियों को समझने के लिए पेरेंट्स साइकोलॉजी थेरेपी की मदद ले सकते हैं (2)। इसमें शामिल विशेषज्ञों को मनोवैज्ञानिक या साइकोलॉजिस्ट कहा जाता है। ये शिशु के बचपन से लेकर उसके किशोरावस्था की सभी स्थितियों को समझते हुए बच्चे के संज्ञानात्मक और बौद्धिक विकास का आंकलन और उसपर अध्ययन करते हैं (3)।
बच्चों की साइकोलॉजी समझना क्यों जरूरी है, इसे हम नीचे कुछ बिंदुओं में समझा रहे हैं।
बच्चे के मनोविज्ञान (Psychology) को समझना क्यों जरूरी है?
बच्चों से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्याएं समझने व उनमें सुधार लाने के उद्देश्य से पेरेंट्स के लिए बाल मनोविज्ञान को समझना आवश्यक माना जाता है। इसके अलावा, कई अहम वजह हैं, जो बच्चों की साइकोलॉजी समझना क्यों जरूरी है, यह बताती हैं (2)।
- मानसिक स्थिति का आंकलन : अगर बच्चे में अवसाद, एंग्जायटी या किसी भी तरह की कोई अन्य मानसिक स्थिति है, तो उसे समझे में बच्चों की साइकोलॉजी मददगार हो सकती है।
- भावनात्मक स्थिति का आंकलन : बच्चा कब व किन स्थितियों में खुश या दुखी होता है, समझने में भी बच्चों का मनोविज्ञान काफी हद तक मदद कर सकता है। साथ ही बच्चा किस तरह से अपने मन की भावनाओं को छिपाता है या सामने जाहिर करना पसंद करता है, ये भी पेरेंट्स बाल मनोविज्ञान के जरिए जान सकते हैं।
- सामाजिक स्थिति का आंकलन : सामाजिक परिवेश में बच्चा खुद को कितना घुला-मिला महसूस करता है या वह लोगों से मिलने में क्यों कतराता है, इसकी जानकारी बाल मनोविज्ञान के जरिए मिल सकती है। साथ ही इसके कारण व उनमें सुधार लाने के तरीके समझने में भी चाइल्ड साइकोलॉजी का सहारा लिया जा सकता है।
- शारीरिक विकास का आंकलन : क्या शारीरिक रूप से बच्चे का विकास सामान्य है या बच्चा अपनी उम्र के अन्य बच्चों के मुकाबले शारीरिक रूप से बहुत पीछे या आगे है, इन बातों को समझने के लिए भी बाल मनोविज्ञान जरूरी है।
- संज्ञानात्मक विकास का आंकलन : संज्ञानात्मक विकास बच्चे की ज्ञानेंद्रियों (Sense) की क्षमता को दर्शाता है। किसी नए काम को सीखने में बच्चा कितना समर्थ है या उसे उस कार्य को सीखने व करने में कितनी कठिनाई आती है, इससे पेरेंट्स बच्चे के संज्ञानात्मक विकास का आंकलन कर सकते हैं। इसके लिए बाल मनोविशेषज्ञ की मदद ली जा सकती है।
- बौद्धिक स्थिति का आंकलन : अपनी उम्र के अनुसार बच्चा किसी तरह की बातों को सीखने या समझने में अधिक दिलचस्पी लेता है या पढ़ने-लिखने में वह कितना होशियार है, इन बातों का आंकलन बच्चे की बौद्धिक स्थिति से किया जा सकता है। इसे समझने के लिए भी बच्चे मनोविज्ञान आवश्यक है।
गौर करें कि माता-पिता के साथ ही शिक्षक के लिए भी बाल मनोविज्ञान समझना जरूरी होता है। जैसे पेरेंट्स बाल मनोविज्ञान की मदद से अपने बच्चे से जुड़ी विभिन्न स्थितियों को परख सकते हैं, उसी तरह बाल मनोविज्ञान का सहारा लेकर शिक्षक भी अपने छात्रों की मानसिक, सामाजिक व भावनात्मक स्थितियों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। साथ ही समय रहते बच्चे को अच्छा सामाजिक और निजी जीवन जीने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
आगे पढ़ें बच्चों से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्याएं क्या-क्या होती हैं।
बच्चों से जुड़ी साइकोलॉजिकल समस्याएं | Bachon Mein Psychological Problem
बच्चों से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्याएं कई हैं। इनमें से कुछ समस्याएं बच्चे के निजी जीवन को, तो कुछ उसके सामाजिक जीवन के स्तर को प्रभावित करती हैं। वहीं, कुछ ऐसी भी समस्याएं हैं, जो बच्चे के मानसिक स्तर के साथ ही स्कूल में उनके कौशल, याद रखने की क्षमता, सहनशीलता व भावनात्मक क्षमता को प्रभावित करती हैं (4)। इनके बारे में जानने के लिए नीचे पढ़ें।
1. अटेंशन डिफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (ADHD)
अटेंशन डिफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (ADHD) एक मानसिक स्थिति है, जो लंबे समय के लिए बच्चे की मानसिक क्षमता को प्रभावित करती है। इसके लक्षण बच्चों में कम उम्र से ही देखे जा सकते हैं। इसकी वजह से बच्चे को ध्यान लगाने में दिक्कत, एकाग्रता की कमी, अव्यवस्थित तरीके से रहना और कार्यों को पूरा करने में परेशानी होना, चीजें भूल जाने जैसी दिक्कतों को सामना करना पड़ता है। आनुवंशिक या पर्यावरणीय दोनों ही तरह की स्थितियां इसका कारण हो सकती हैं (5)।
2. बौद्धिक विकलांगता (Intellectual Disability)
बौद्धिक विकलांगता या इंटेलेक्चुअल डिसेबिलिटी (ID) न्यूरोडेवलपमेंटल से जुड़ी समस्या है। यह बच्चों की बौद्धिक कार्यप्रणाली और व्यवहार को प्रभावित करती है। इसके लक्षण बच्चे में 18 वर्ष से पहले ही देखे जाते हैं। ऐसे बच्चों के सीखने की क्षमता, बातचीत का तरीका आदि सामान्य बच्चों से काफी अलग होता है। इनका आईक्यू (IQ) लेवल भी कम होता है। साथ ही इनमें आत्म-सम्मान की कमी भी देखी जा सकती है (6)।
3. ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (Autism Spectrum Disorder)
बच्चों में ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) भी न्यूरोडेवलपमेंटल यानी मस्तिष्क संबंधित विकार है। इसके लक्षण कम उम्र में ही बच्चों में देखे जा सकते हैं। इससे बच्चे के सामाजिक रहन-सहन, बातचीत करने के कौशल व अपनी बात को जाहिर करने व समझाने जैसी क्षमता प्रभावित होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुमान के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगभग 16% बच्चों में ये समस्या देखी जाती है (7)।
4. कंडक्ट डिसऑर्डर (Conduct Disorder)
कंडक्ट डिसऑर्डर (CD) या आचरण विकार जैसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त बच्चे का व्यवहार दूसरों के लिए काफी आक्रमक हो जाता है। यह आक्रामकता समय के साथ बढ़ती चली जाती है। इसके लक्षणों के साथ ही बच्चे में अवसाद, एडीएचडी, सीखने से संबंधित विकार सहित कई अन्य मनोरोग के लक्षण भी देखे जाते हैं (8)।
5. एडजस्टमेंट डिसऑर्डर (Adjustment Disorder)
एडजस्टमेंट डिसऑर्डर (AD) मनोविकार सामाजिक माहौल से जुड़ा है। इसके कारण बच्चा नए माहौल में खुद को ढालने में कठिनाई महसूस करता है। इसके अलावा, किसी व्यक्ति से दूर जाने व इस तरह की अन्य स्थितियों में भी उसे खुद को संभालने या उसमें ढलने में परेशानी हो सकती है। इसी वजह से वो तनावग्रस्त रहने, मन में निराशा रखने या शारीरिक रूप से खुद को असमर्थ महसूस करने लगते हैं (9)।
6. चाइल्डहुड सिजोफ्रेनिया (Childhood Schizophrenia)
चाइल्डहुड सिजोफ्रेनिया (CS) कई अन्य स्थितियों के साथ एक न्यूरोडेवलपमेंटल विकार है। बच्चे में 13 वर्ष से पहले इसके लक्षणों की शुरुआत हो सकती है। किशोरावस्था के समय 18 वर्ष में भी इसके लक्षण नजर आ सकते हैं। यह विकार बच्चे की स्मृति, सोचने की क्षमता और भावनाओं को मैनेज करने की क्षमता को प्रभावित करता है। हालांकि, इसे बहुत ही दुर्लभ माना जाता है। आंकड़ों के अनुसार 1% बच्चों में इसके लक्षण हो सकते हैं (10)।
7. अडॉप्टेड चाइल्ड सिंड्रोम (Adopted Child Syndrome)
गोद लिए हुए बच्चे में अडॉप्टेड चाइल्ड सिंड्रोम (ACS) देखा जा सकता है, जिसे मनोविकार में शामिल किया गया है। यह पेरेंट्स और बच्चे के बीच भावनात्मक और मानसिक रूप से बनी दूरी के कारण हो सकता है। इसके चलते बच्चे में चोरी करने की और झूठ बोलने की आदत के साथ ही पेरेंट्स के प्रति आक्रामक व्यवाहर भी देखा जाता है (11)।
इस संबंध में एनसीबीआई (नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन) की साइट पर भी एक रिसर्च मौजूद है। उसके आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक तौर पर हर साल लगभग 40 हजार बच्चों को गोद लिया जाता है। इस वजह से ये बच्चे 100 देशों से भी अधिक देश ले जाए जाते हैं। यह कई दंपत्तियों व बच्चों के लिए एक नए जीवन जैसा होता है। साथ ही अध्ययन यह भी बताते हैं कि इससे गोद लिए बच्चे में मानसिक और एडजेस्टमेंट संबंधी परेशानी व जोखिम बढ़ सकते हैं (12)।
8. स्टीरियोटाइप मूवमेंट डिसऑर्डर (Stereotypic Movement Disorder)
बिना किसी कारण खुद को काटना, हाथ या शरीर का कोई अंग हिलाना या नाखून चबाना स्टीरियोटाइप मूवमेंट डिसऑर्डर (SMD) कहलाता है। इस मनोरोग से पीड़ित बच्चे में किसी एक ही बात को बार-बार कहने की आदत, बिना किसी उद्देश्य के कोई हरकत करना, हाथ हिलाते रहना, शरीर हिलाते रहना या सिर पीटने जैसे लक्षण हो सकते हैं। इस तरह की गतिविधि में वो खुद को या अन्य को शारीरिक नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। ये समस्या अक्सर तनाव, निराशा या बोरियत के साथ बढ़ने लगती है (13)।
9. स्लगिश कॉग्निटिव टेम्पो (Sluggish Cognitive Tempo)
स्लगिश कॉग्निटिव टेम्पो (SCT) एक मोनविकार है। ऐसे बच्चे शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत सुस्त होते हैं। उन्हें कोई भी कार्य शुरू करने में कठिनाई होती है। ऐसे बच्चे असल दुनिया से खुद को अलग ही रखते हैं और हर बात में बहुत ही उलझे हुए भी रहते हैं। ये डेड्रीमिंग यानी खुली आंखों से सपने देखने वाले होते हैं। साथ ही ये किसी भी कार्य को करने की पहल नहीं कर पाते (14)।
10. सेलेक्टिव म्यूटिज्म (Selective Mutism)
सेलेक्टिव म्यूटिज्म (SM) एक तरह की चाइल्ड एंग्जायटी है। इस मनोविकार को दुर्लभ माना जाता है। इसमें बच्चे को भाषण संबंधी परेशानी होती है। बच्चे सुनने के बाद भी शब्दों को दोहराने या बोलने में कठिनाई महसूस करते हैं। ऐसे बच्चे में हकलाने की समस्या भी हो सकती है। आमतौर पर यह परेशानी तीन और छह साल की उम्र के बीच के बच्चों में देखी जाती है। इसके लक्षण स्कूल जाने की उम्र में पहचाने जाते हैं। यह परेशानी लड़कों की तुलना में लड़कियों में अधिक होती है (15)।
11. डिप्रेसिव मूड डिसरेगुलेशन डिसऑर्डर (Disruptive Mood Dysregulation Disorder)
डिप्रेसिव मूड डिसरेगुलेशन डिसऑर्डर (DMDD) छोटे बच्चों व किशोरों में हो सकता है। इसकी वजह से बच्चा लगातार चिड़चिड़ा रहता है और अपना मानसिक संतुलन जल्दी खो सकता है, जिस वजह से वह जल्दी गुस्सा भी हो जाता है (16)।
12. ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर (Obsessive-Compulsive Disorder)
ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर (OCD) बचपन और किशोरावस्था में पहचानी जाने वाली एक मानसिक स्थिति है। इसमें बच्चा एक ही कार्य, बात या व्यवहार को बार-बार दोहरा सकता है। इनमें किसी काम या आदत को बार-बार करने की धुन होती है। अध्ययन यह भी बताते हैं कि लगभग 45 से 65% मामलों में यह समस्या आनुवांशिक हो सकती है (17)।
13. ओपोजिशनल डिफिएंट डिसऑर्डर (Oppositional Defiant Disorder)
ओपोजिशनल डिफिएंट डिसऑर्डर (ODD) भी एक मनोवैज्ञानिक विकार है। इसकी वजह से बच्चा गुस्सैल और अड़ियल स्वभाव का हो सकता है। बच्चे का यह रवैया बढ़ती उम्र के साथ और बढ़ता जा सकता है। साथ ही बच्चा अपनी भावनाओं और व्यवहारों पर आत्म-नियंत्रण रखने में असमर्थ हो सकता है (18)।
14. सेक्सुअल बिहेवियर समस्याएं (Sexual Psychological Disorder)
बच्चों व किशोरों में सेक्सुअल बिहेवियर समस्याएं भी देखी जा सकती हैं, जिसे मनोरोग की श्रेणी में शामिल किया गया है। अगर बच्चा किसी तरह के खराब व्यवाहर और दर्दनाक अनुभव से गुजरता है, तो विकासशील बच्चे का आक्रमक यौन व्यवहार हो सकता है। ऐसा अक्सर वह जानकारी के अभाव में करता है। इसकी वजह से कम उम्र में ही शारीरिक संबंध बनाना व अन्य यौन गतिविधियों में बच्चा शामिल हो सकता है (19)।
15. टॉरेट सिंड्रोम (Tourette Syndrome)
टॉरेट सिंड्रोम (TS) तंत्रिका तंत्र से जुड़ा एक रोग है। इसकी वजह से बच्चे की तंत्रिकाओं में संकुचन या सिकुड़न होती है, जिसे “टिक्स” (Tics) कहते हैं। इस तरह जब भी टिक्स तंत्रिकाओं में होने लगे, तो इससे बच्चा शरीर के किसी एक ही अंग या हिस्से को बार-बार अचानक से हिलाने-डुलाने लगता है (20)।
वह बार-बार अपनी पलकों को झपका सकता है या बार-बार अजीब आवाजें भी निकाल सकता है। यह काफी हद तक हिचकी आने जैसा भी होता है। यही वजह है कि लोग हिचकी और टॉरेट सिंड्रोम को लेकर भ्रमित हो जाते हैं (20)।
16. एंग्जायटी और अवसाद (Anxiety and Depression)
एंग्जायटी और अवसाद एक ऐसी स्थिति है, जिसपर बहुत ही कम लोग बात करते हैं। यह मनोरोग बच्चों में भी हो सकता है। अगर बच्चा अक्सर उदास रहता है या निराश महसूस करता है, तो हो सकता है कि ये इस बीमारी के लक्षण हों। आमतौर पर बच्चे बिना वजह ही अपने माता-पिता से दूर होने की सोचकर परेशान होते हैं। उनकी यह सोच उनमें डर और चिंता पैदा कर सकता है। होते-होते इससे उन्हें अवसाद हो सकता है (21)।
17. पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (Post-Traumatic Stress Disorder)
बच्चों में मेंटल हेल्थ से जुड़ी पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) की समस्या भी हो सकती है। यह बच्चे के जीवन व अनुभव से जुड़ी किसी भयानक या अप्रिय घटना से उत्पन्न होती है। आमतौर पर समय के साथ-साथ बच्चे इस तरह की घटना से उबर जाते हैं। हां, कुछ बच्चों में यह समस्या लंबे समय तक भी रह सकती है, जिसका निदान और उपचार जरूरी है (22)।
लेख के आखिर में हम बच्चों की साइकोलॉजी समझने के टिप्स भी बता रहे हैं।
बच्चे की साइकोलॉजी समझने के बेहतरीन 15+ तरीके | Tips To Understand Child Psychology In Hindi
अब पढ़िए बच्चों की साइकोलॉजी से जुड़े कुछ टिप्स। इनकी मदद से आप आसानी से बच्चे की मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक व शारीरिक स्थितियों को समझ सकेंगे। क्या हैं वो टिप्स जानने के लिए स्क्रॉल करें।
- बच्चे के व्यवहार का अवलोकन : बच्चों की साइकोलॉजी समझने का पहला उपाय बच्चे के व्यवहार पर गौर करना है। यह न सिर्फ पेरेंट्स के लिए जरूरी है, बल्कि उसके साथ रहने वाले दोस्तों, भाई-बहन, शिक्षक व अन्य साथ रहने वाले लोगों के लिए भी जरूरी है। अगर बच्चे के साथ रहने वाले सभी लोग उसके व्यवहार, हरकत, काम करने या बातचीत करने के तरीकों पर गौर करेंगे, तो आसानी से बच्चे की मनोवैज्ञानिक स्थिति को समझा जा सकता है।
- दें फुल अटेंशन : बच्चा जब भी पेरेंट्स से कोई बात कहे या कोई इच्छा जाहिर करे, तो उसे अपनी पूरी अटेंशन दें। साथ ही जब भी आप बच्चे के साथ या आस-पास हों, तो उसकी हर हरकत और व्यवहार पर अपनी पूरी नजर बनाए रखें। अगर इस दौरान लगता है कि बच्चा कोई जोखिम भरा कार्य कर रहा है या कुछ गलत शब्द बोल रहा है, तो उसे तुरंत टोक दें। इससे न सिर्फ बच्चे को सही दिशा मिलेगी, बल्कि उसे सही और गलत का भी एहसास होगा।
- किसी बात को अनसुना न करें : अक्सर माता-पिता बच्चे की बातों को बचकाना समझकर या उसे जरूरी न मानकर अनसुना कर देते हैं। इस वजह से माता-पिता बच्चे से जुड़ी कई तरह की मानसिक व शारीरिक परेशानियों को भी नहीं पहचान पाते। वहीं, पेरेंट्स के इस तरह के व्यवहार से बच्चा भी उनके सामने अपनी बात रखने से कतरा सकता है। इसी वजह से जब भी बच्चा आपसे कुछ कहना चाहे, उसकी बात को सुनें।
- बच्चे के साथ समय गुजारें : घर या कामकाजी जीवन से थोड़ा समय निकालकर अपने बच्चे के साथ वक्त गुजारें। माता-पिता बच्चे के साथ समय व्यतीत करेंगे, तभी बच्चा उनके साथ घुलेगा-मिलेगा। इससे वो अपनी समस्याएं माता-पिता के सामने जाहिर करने से संकोच भी नहीं करेगा। साथ ही पेरेंट्स बच्चे के साथ जितना समय रहेंगे, उतनी ही अच्छी तरह से उसके व्यवहार और मानसिक स्थिति को समझ पाएंगे।
- बच्चे से जुड़ी समस्या का कारण ढूंढें : बच्चा अगर किसी तरह की गलती करता है या किसी तरह के लड़ाई-झगड़े में शामिल होता है, तो माता-पिता उसे सजा दे देते हैं। ऐसा न करें। बच्चे को सजा देने या दोषी ठहराने से पहले उसके पीछे की वजह जरूर पता करें। उसने ऐसा काम क्यों किया, इस बारे में बच्चे से प्यार से बात करें।
अक्सर माता-पिता बच्चे को डराने या धमकाने जैसी हरकतें करते हैं, जो सरासर गलत तरीका है। अगर बच्चा कभी किसी परेशानी में फंस जाता है, तो उससे प्यार से पूछें कि आखिर उसे वो हरकत या बर्ताव करने में किसने मजबूर किया था।
- बच्चे के मानसिक विकास को समझें : यह जरूरी नहीं कि हर बच्चे का दिमाग एक ही गति से काम करें। हर बच्चे की मानसिक विकास की अलग-अलग गति होती है, इसलिए बच्चे की मानसित विकास की गति को समझें। अगर वह अपनी उम्र के अन्य बच्चों के मुकाबले पढ़ने-लिखने व कुछ भी नया कार्य करने व सीखने में धीमा है या असमर्थ है, तो इसमें उसकी मदद करें। इसके लिए बच्चे को ट्यूशन व अन्य एक्टिविटी क्लासेज में एडिमिशन भी दिलवा सकते हैं।
- बातें करें : हर दिन समय निकालकर बच्चे से बात करें। अगर घर में बच्चे के साथ समय नहीं गुजार सकते हैं या बच्चे से दूर रहते हैं, तो हर दिन बच्चे से फोन पर बात करें। इस दौरान उसका हाल पूछें। उसका दिन कैसा रहा, दिनभर में उसने किस तरह की गतिविधियां की, आज क्या स्पेशल किया या आज के दिन उसने क्या नया सीखा, ये सब बच्चे से पूछ सकते हैं।
हो सकता है कि शुरू में बच्चा इस तरह की बातें न बताए, लेकिन बार-बार हर दिन इसी तरह के सवाल सुनने से बच्चा खुद ही अपनी सारी बातें बताना शुरू कर सकता है। इसी तरह पेरेंट्स भी अपने बच्चे की बातों से उसकी मानसिक स्थिति का आंकलन कर सकते हैं।
- बच्चे की बातों का सही अर्थ समझें : सिर्फ बच्चे से बात करना या उसकी बातों को सुनना ही काफी नहीं होता। अगर चाहते हैं कि बच्चे की मानसिक अवस्था से पूरी तरह से अवगत रहें, तो पेरेंट्स को बच्चे की कही हर बात को समझना चाहिए। हो सकता है कि बच्चा अपनी बातें तोलमोल कर या थोड़ा घुमा कर बोलता हो। ऐसे में पेरेंट्स की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चे की बातों का सही अर्थ समझें। इससे वे आसानी से बच्चे की भावनाओं को समझ सकते हैं और उससे जुड़ी किसी भी मानसिक स्थिति को समझ सकेंगे।
- बॉडी लैंग्वेज व आई कॉन्टैक्ट पर दें ध्यान : जब भी बच्चा बात करे, तो पेरेंट्स को उसकी बाॅडी लैंग्वेज व आई काॅन्टैक्ट पर ध्यान देना चाहिए। हर दिन उसके इस तरह के व्यवहार को नोटिस करें। अगर किसी दिन बच्चे को कोई परेशानी होती है, तो उस दिन बात करते समय उसकी बॉडी लैंग्वेज व आई कॉन्टैक्ट में किसी तरह का बदलाव हो सकता। इन सब पर गौर करके माता-पिता आसानी से बच्चे की मानसिक अवस्था को समझ सकते हैं।
- बच्चे की भावनाओं को समझें : वयस्क और बच्चे की सोच एकदम अलग होती है। हो सकता है कि जिस बात को माता-पिता बचकाना समझें, वह बात बच्चे के लिए सबसे महत्वपूर्ण हो। ऐसे में बच्चे से बात करते समय उसकी भावनाओं को समझना जरूरी है। किस बात को करते समय बच्चा खुशी महसूस करता है, किस बात से बच्चा मायूस, उदास या चिड़चिड़ा होता है, उन सब बातों व भावनाओं को समझें।
- बच्चे से पूछें सही सवाल : अगर चाहते हैं कि बच्चा पूरी सच्चाई के साथ सारे सवालों का जवाब दे, तो बच्चे से उसी तरह के सवाल पूछें। बातचीत के दौरान उससे भी अपनी कुछ बातें शेयर करें। ऐसा करने से पेरेंट्स के प्रति बच्चे का भरोसा बढ़ सकता है और वह खुद से जुड़ी बातें उनसे कर सकता है। उसकी उम्र के अनुसार या उसके विषय के अनुसार ही पढ़ाई से संबंधित सवाल पूछें। बच्चे से ऐसे सवाल न करें, जिसके बारे में उसे जानकारी न हो।
- बच्चा बनकर सोंचें : कई बार बच्चों को समझने के लिए बच्चा बनना पड़ता है। उन्हें प्यार देना और दोस्त बनकर उनके साथ पेश आना जरूरी है। ऐसा करने के लिए उनकी भावनाओं को समझें और बात-बात में यह भी जानने का प्रयास करें कि उनके मन में क्या चल रहा है। साथ ही सोचें कि अगर आप उनकी जगह होते तो खुद के पेरेंट्स से क्या उम्मीद करते।
- बच्चे के इमोशन को समझें : अक्सर ऐसा होता है कि लोग बच्चे की फीलिंग या इमोशन को इग्नोर कर देते हैं। ये सोच लेते हैं कि जैसे-जैसे बच्चे बड़े होंगे वो सबकुछ भूल जाएंगे, लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता। कई बार बच्चे के दिमाग में बचपन की बातें बैठ जाती हैं, क्योंकि उनके मन-मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। यह जीवनभर तक उनके साथ चल सकता है, इसलिए बच्चों के इमोशन को हल्के में न लें, उन्हें समझें।
- अपने बच्चे के घनिष्ठ मित्र बनें : किसी भी माता-पिता के लिए सबसे बड़ी चुनौती बच्चे का अच्छा दोस्त बनना होता है। इसके लिए शुरू से ही बच्चे के करीब रहें। बच्चे की हर जायज जरूरत में उसका साथ दें। उसकी गलतियों को सुधारने में मदद करें। उसे सही सुझाव दें। बच्चे के प्रति अपना व्यवहार दोस्ताना रखें और कभी-कभार कुछ फैसलों में भी बच्चे का सुझाव लें। रिश्ते को और मजबूत बनाने के लिए बच्चे के साथ घूमने और साथ में टीवी देखने का भी प्लान बना सकते हैं।
- बच्चे की प्रशंसा करें : अगर माता-पिता बच्चे की प्रशंसा करेंगे, तो उनकी यह पहल न सिर्फ बच्चे को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकती है, बल्कि इससे बच्चे के आत्मविश्वास को भी बढ़ावा मिलेगा। इसकी पुष्टि इससे संबंधित एक रिसर्च में भी होती है। इसमें बताया गया है कि प्रशंसा करने से बच्चे की मानसिक और सामाजिक स्थिति पर सकारात्मक असर पड़ सकता है (23)।
- बच्चे को सम्मान दें : जब भी बच्चा अपने पेरेंट्स से मन में छुपे किसी डर, असुरक्षा की भावना या अपनी किसी गलती की बात करे, तो माता-पिता को उसे शांति से सुनना चाहिए। इसके लिए उन्हें बच्चे को कमजोर नहीं बताना चाहिए, न ही उसका उपहास उड़ाना चाहिए। उन्हें बच्चे को सम्मान देना चाहिए। बच्चे को भरोसा दिलाएं कि वह इस तरह की अपनी किसी भी स्थिति को उसके साथ शेयर कर सकता है और वे इसमें बच्चे की पूरी मदद भी करेंगे।
- बच्चे की पसंद-नापसंद जानें : बच्चे को क्या पसंद है और क्या नापसंद है, इसकी जानकारी रखें। उदाहरण के लिए, बच्चे का मनपसंद खेल, रंग, भोजन, विषय आदि के बारे में उससे पूछे और जानकारी लें। अगर पेरेंट्स उससे जुड़ी इस तरह की छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखेंगे, तो उनपर बच्चे का भरोसा बढ़ेगा और बच्चा आसानी से अपनी मानसिक स्थिति को उनके सामने स्पष्ट कर सकता है। साथ ही पेरेंट्स को भी बच्चे के मनोविज्ञान को समझने में आसानी होगी।
हर बच्चा अपने आप में सबसे अलग होता है। कुछ बच्चे खूब बोलते हैं, तो कुछ काफी शांत व शर्मीले स्वाभाव के होते हैं। कुछ बच्चे अपनी उम्र के बच्चों से काफी होशियार, तो कुछ पढ़ाई-लिखाई व खेल में बहुत धीमी गति से आगे बढ़ते हैं। ऐसे में बच्चे को समझे कि उसमें क्या खास है। इसके लिए बाल मनोविज्ञान की मदद ली जा सकती है। इसके लिए लेख में बताए गए टिप्स भी मददगार साबित हो सकते हैं। बस तो लेख को पढ़कर अच्छे से बाल मनोविज्ञान को समझकर ही बच्चे का लालन-पालन करें।
References
- Helping your child with mental illness
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https://www.cdc.gov/ncbddd/tourette/facts.html - Anxiety and Depression in Children
https://www.cdc.gov/childrensmentalhealth/depression.html - Post-traumatic Stress Disorder in Children
https://www.cdc.gov/childrensmentalhealth/ptsd.html - The Effects of Praise on Children’s Intrinsic Motivation: A Review and Synthesis
https://www.researchgate.net/publication/11182972_The_Effects_of_Praise_on_Children%27s_Intrinsic_Motivation_A_Review_and_Synthesis
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