अलिफ लैला – गरीक बादशाह और हकीम दूबां की कहानी
June 17, 2024 द्वारा लिखित nripendra
मछुवारे ने गागर में कैद राक्षस को ‘ग्रीक बादशाह और हकीम दूबां’ कहानी सुनाते हुए कहा कि फारस देश में रूमा नामक एक शहर था, जिसके बादशाह का नाम ग्रीक था। बादशाह ग्रीक लंबे समय से कुष्ट रोग से पीड़ित था और कई हकीमों व वैद्यों से इलाज करवाने के बावजूद बादशाह को आराम नहीं मिल रहा था। अपनी स्थिति को लेकर बादशाह बहुत कष्ट में था।
एक बार रूमा शहर में दूबां नामक हकीम संयोगवश आ पहुंचा। दूबां को जड़ी-बूटियों की बहुत अच्छी जानकारी थी। साथ ही हकीम को अरबी, फारसी व यूनानी जैसी कई भाषाएं भी आती थीं। जब हकीम दूबां को पता चला कि बादशाह को कुष्ट रोग है, तो उसने खुद ही बादशाह को संदेश भेजकर उनसे मिलने की इच्छा जताई। बादशाह ने हकीम की प्रार्थना स्वीकार करते हुए मिलने की इजाजत दे दी।
बादशाह से अनुमति मिलने के बाद हकीम दूबां अगले ही दिन ग्रीक के दरबार में पहुंच गया और उन्हें दंडवत प्रणाम किया। हकीम ने राजा के कुष्ट रोग की स्थिति को देखते हुए कहा कि वह खाने व लगाने की दवा दिए बिना बादशाह को कुष्ट रोग से मुक्ति दिला सकता है। हकीम दूबां के आत्मविश्वास को देखते हुए बादशाह ने भी दूबां को इलाज करने की अनुमति दे दी और रोग मुक्त होने पर बहुत सारी धनराशि देने की बात कही।
बादशाह से इलाज की अनुमति प्राप्त होते ही हकीम दूबां सीधे अपने निवास स्थान पर पहुंचा और कुष्ट रोग के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं और औषधियों को मिलाकर एक गेंद और एक बल्ला बनवाया। अगले दिन ही हकीम दूबां औषधियों से बनी गेंद और बल्ला लेकर बादशाह के पास पहुंचा और उनसे घुड़सवारी की गेंदबाजी (पोलो) का खेल खेलते हुए इन दोनों को इस्तेमाल करने के लिए कहा।
हकीम के कहे अनुसार ही बादशाह ग्रीक औषधियों से बनी गेंद और बल्ले को लेकर पोलो खेलने पहुंचे। पोलो खेलते हुए बादशाह थक कर पसीने से तर हो गए और पसीने के साथ ही औषधियां राजा के शरीर में प्रवेश करने लगीं। इसके बाद हकीम के कहे अनुसार बादशाह ने पोलो खेलने के बाद गर्म पानी से स्नान किया और फिर औषधियों के तेल से रगड़-रगड़ कर पूरे शरीर की मालिश की, जिसके बाद बादशाह सोने के लिए अपने कक्ष में चले गए।
जब अगली सुबह बादशाह ग्रीक उठे, तो उनके शरीर पर कुष्ट रोग का कोई नामोनिशां नहीं था और वह पूरी तरह से स्वस्थ हो चुके थे। यह देखकर बादशाह फूले नहीं समाए और नहा धोकर महंगे कपड़े और आभूषणों से सजकर दरबार पहुंचे। बादशाह को एक ही दिन में निरोग देखकर दरबार में मौजूद सभी मंत्री भी हैरान रह गए। बादशाह ग्रीक ने हकीम की तारीफ के पुल बांधते हुए दूबां को अपने पास बुलाया और उसका आभार प्रकट करते हुए अपने बगल में बैठाया, साथ ही भोजन कराया और कीमती कपड़े व बड़ी धनराशि इनाम के रूप में हकीम को दी।
इसके बाद से बादशाह हकीम को हमेशा अपने पास रखता और अब वह बादशाह के विश्वास पात्रों में से एक हो गया था। हकीम का उपकार मानते हुए बादशाह प्रतिदिन उसे इनाम देता रहता और उसकी मान व प्रतिष्ठा बढ़ाते रहता। हकीम पर बादशाह की इतनी अधिक कृपा देखकर दरबार का एक मंत्री मन ही मन दूबां से जलने लगा। मंत्री उसे बादशाह की नजरों से गिराने के अवसर खोजने लगा। एक दिन अकेले में मौका पाकर मंत्री ने बादशाह से कहा, “हुजूर, मुझे व दरबार के दूसरे मंत्रियों को लगता है कि एक विदेशी हकीम को इतनी मान प्रतिष्ठा देना ठीक नहीं है। हमें लगता है कि असल में हकीम दूबां कपटी है, जिसे हमारे राज्य का भेद लेने के लिए शत्रुओं ने भेजा है और यह छल से आपको जान से मारने की फिराक में है।”
मंत्री की बात सुनकर बादशाह ग्रीक ने कहा, “तुम बिना सबूत के हकीम पर इतने बड़े इल्जाम क्यों लगा रहे हो और अगर उसे मुझे मारना ही होता, तो वह मुझे कुष्ट रोग से मुक्त कर स्वस्थ क्यों करता?” बादशाह ने कहा, “मुझे निरोग जीवन देने वाले हकीम के बारे में ऐसा सोचना भी पाप है और एक सत्पुरुष वही होता है जो अपने ऊपर किए गए उपकारों को कभी न भूले।” बादशाह ग्रीक ने मंत्री को समझाते हुए कहा, “तुम्हारी बातें मुझे वह कहानी याद दिला रही है जब बादशाह सिकंदर ने बिना सोचे समझे जल्दबाजी में फैसला लेकर शहजादे को मौत की सजा दे दी, लेकिन वजीर की सूझबूझ से शहजादे की जान बचाई गई।” बादशाह की बात सुनकर मंत्री ने वह कहानी सुनने की इच्छा जताई।
बादशाह ग्रीक ने मंत्री को कहानी सुनाते हुए बताया कि बादशाह सिंदबाद की बेगम की मां सिंदबाद के बेटे (अपने नाती) से किसी कारण जलती थी। वह हमेशा अवसर तलाशती रहती कि वह कैसे बादशाह के सामने शहजादे को गलत ठहराए और उसे सजा दिलवाए। एक बार उसने छल से शहजादे पर गंभीर आरोप लगाने में सफल रही और शहजादा भी अपना बचाव नहीं कर सका। अपने बेटे को दोषी मानते हुए बादशाह सिंदबाद ने शहजादे को मौत की सजा देने का फरमान सुनाया।
बादशाह सिकंदर के फरमान के खिलाफ जाने की किसी की हिम्मत नहीं थी। फिर भी बादशाह के दरबार के मंत्रियों में से एक वजीर ने हिम्मत जुटाते हुए बादशाह से जल्दबाजी में फैसला न लेने का निवेदन किया। वजीर बादशाह का विश्वास पात्र था, उसने सिकंदर से कहा, “बिना सोचे समझे फैसला न लें। कहीं ऐसा न हो जाए, जैसे एक भद्र पुरुष ने दूसरों की बात सुनकर जल्दबाजी में अपने तोते को ही मार दिया और बाद में जिंदगी भर के लिए पछताता रहा।” वजीर की बात सुनकर बादशाह सिकंदर ने भद्र पुरुष और तोते की कहानी को सुनने की इच्छा जताई, जिसे वजीर ने सुनाना शुरू किया।