मुंशी प्रेमचंद की कहानी : नेउर | Neur Premchand Story in Hindi
June 17, 2024 द्वारा लिखित Sweta Shrivastava
मौसम का मिजाज बदला हुआ था। बरसात के दिन थे। आकाश में बादल इधर-उधर भाग रहे थे, आपस में गले मिल रहे थे। कभी छाया, तो कभी चमकती धूप हो रही थी। ऐसा लग रहा था मानों सूरज और बादलों में लड़ाई हो रही हो।
वहीं, गांव के बाहर कई मजदूर एक खेत में मेड़ बांध रहे थे। सभी पसीने में तर फावड़े से मिट्टी खोदकर मेड़ पर रख रहे थे। वहां मौजूद पानी के कारण मिट्टी नरम हो गई थी।
तभी गोबर ने अपनी कानी आंख मटका कर कहा – “अब तो हाथ नहीं चल रहा है भाई, भोजन कर लें।”
नेउर ने हंसकर कहा – “मैं तुमसे पहले काम पर आया था। पहले यह मेड़ बांध लो फिर भोजन करना।”
इतने में गोबर ने कहा – “नेउर दादा, तुमने अपनी जवानी में जितना घी खाया था न, हमें अब उतना पानी भी नहीं मिलता।” नेउर छोटे कद का सांवला, गठीला और फुर्तीला आदमी था। उम्र पचास के ऊपर थी, लेकिन नौजवान उसके बराबर मेहनत करने में हार मान जाते थे। अभी दो-तीन साल पहले ही उसने कुश्ती लड़ना छोड़ा था।
गोबर – “तम्बाकू पिये बिना तुमसे कैसे रहा जाता है नेउर दादा? हमें तो रोटी मिले न मिले, लेकिन तम्बाकू बिना हम नहीं जी सकते।”
दीना – “मेहरिया कुछ नहीं करती है? हम तो ऐसी मेहरिया साथ एक दिन न रहें।”
नेउर – “जवानी तो उसके साथ कटी है, अब बुढ़ापे में उससे कोई काम नहीं होता, तो भला क्या करें?”
गोबर – “तुमने उसे सिर चढ़ा रखा है, वरना काम क्यों नहीं करेगी? दिनभर मजे से खाट पर बैठी चिलम पीती रहती है और गांव भर से लड़ती है। तुम जरूर बूढ़े हो गए हो, लेकिन वो अब भी जवान ही है।”
उसी वक्त दीना बोला – “जवान औरत क्या उसकी बराबरी करेगी? आज भी सिंदूर, बिंदी, काजल और मेहंदी में उसका मन बसता है। रंगीन धोती और गहनों के बिना हमने तो कभी उसे देखा नहीं। तुम सीधे हो, इसलिए निभा रहे हो, नहीं तो गली-गली ठोकरें खाती।”
गोबर – “मुझे तो उसके दिखावे पर गुस्सा आता है। काम कुछ न करेगी, लेकिन पहनने-खाने को अच्छा ही चाहिए।”
नेउर – “तुम नहीं जानते बेटा, जब वह आई थी तब मेरा हाल ऐसा न था। वह रानी की तरह रहती थी। वक्त बदल गया, लेकिन मन तो अब भी वही है न। जरा-सा चूल्हे के पास बैठ जाए, तो आंखें लाल हो जाती हैं। मुझसे तो यह हाल नहीं देखा जाता है। यहां से जाकर पानी लाऊंगा और रोटी बनाऊंगा, तब जाकर खाएगी। तुम्हारी तरह अकेला रहता, तो तम्बाकू की चार फूंक मारकर और एक लोटा पानी पीकर सो जाता। जब से बिटिया मरी है, तब से वह और सुस्त हो गई है। उसके मन को काफी धक्का लगा है। मां की ममता तुम नहीं समझोगे बेटा, पहले तो डांट-डपट देता था, अब किस मुंह से बोलूं?”
दीना – “कल तुम पेड़ पर काहे चढ़े थे?”
नेउर – “बकरी के लिए पत्ती तोड़ रहा था। बिटिया को दूध पिलाने के लिए बकरी ली थी। अब वह भी बूढ़ी हो गई है, लेकिन थोड़ा दूध दे देती है। उसका दूध और रोटी ही मेरी मेहरिया का आधार है।”
शाम होते ही नेउर घर पहुंचा। उसने लोटा उठाया और नहाने की तैयारी करने लगा। तभी स्त्री ने खाट पर लेटे-लेटे कहा, “इतनी देर क्यों कर दी? काम के पीछे प्राण मत दे दो। जब पगार सबको बराबर मिलती है, तो अकेले तुम क्यों जान देते हो?”
नेउर का मन प्रेम से भर गया। उसने सोचा मेरी स्त्री के दिल में मेरे प्रति कितना प्रेम है। उसे मेरे मरने-जीने की चिंता है।
नेउर बोला – “तू जरूर पिछले जन्म में देवी रही होगी।”
बुढ़िया बोली – “रहने दो चापलूसी बंद करो। हमारे आगे कौन है, जिसके लिए इतना हाय-हाय करें?” नेउर नहा कर लौटा और रोटियां बनाने लगा। चूल्हे से आलू निकाल कर उनका भर्ता बनाया और दोनों साथ खाने लगे।”
बुढ़िया बोली – “मेरे होने से तुम्हें कोई सुख नहीं मिला न। केवल पड़े-पड़े खाती हूं और तुम्हें तंग करती हूं। इससे अच्छा तो भगवान मुझे उठा लेता।”
नेउर उसकी बात काटते हुए बीच में बोला – “यमराज आएंगे, तो उनसे कहूंगा कि पहले मुझे ले चलो। भला इस सुनसान झोपड़ी में अकेले कौन रहेगा।”
बुढ़िया बोली – “तुम न होते, तो मेरा क्या हाल होता, यह सोचते ही मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। जरूर मैंने कोई पुण्य किया होगा तभी तुम मिले, वरना किसी और के साथ मैं रह न पाती।” जैसे शिकारी कांटे में चारा लगाकर मछली को फंसाता है, वैसे ही आलसी और लोभी बुढ़िया जीभ पर रस रखकर नेउर को अपने इशारों पर नचाती थी।
उन दोनों में से पहले कौन मरेगा, इस विषय पर आज उनकी कोई नई बातचीत न थी। पहले भी हजारों बार इस विषय पर चर्चा हुई। नेउर ने मन ही मन यह मान लिया था कि पहले वही जाएगा। वह मेहनत इसलिए करता था, ताकि उसके पीछे बुढ़िया को किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। वह आराम से खा सके। जो काम कोई नहीं कर सकता था, वह नेउर करता था कि चार पैसे जमा हो जाए। बुढ़िया के बगैर वह अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था, लेकिन आज की बात ने नेउर को सोच में डाल दिया था।
गांव भर में नेउर को काम की कमी न थी, लेकिन मजदूरी कुछ न मिलती थी। एक दिन एक बाबा जी घूमते-फिरते गांव में आ पहुंचे। उन्होंने नेउर के घर के सामने ही डेरा डाल दिया। बाबा जी की सेवा के लिए गांव भर के लोग जमा हो गए। किसी ने लकड़ी दी, किसी ने कंबल का इंतजाम किया, तो कोई आटा-दाल ले आया। नेउर को समझ नहीं आया कि वह क्या करे, तो उसने भोजन बनाने का जिम्मा ले लिया।
बाबा जी भूत-भविष्य बताते थे। दूर-दूर तक लोभ उन्हें छू नहीं सका था। दो-तीन दिनों में ही बाबाजी की चर्चा आसपास के गांवों में होने लगी। नेउर बाबा जी का सबसे बड़ा भक्त था। उसने सोचा कि बस बाबा जी की कृपा बरस जाए, तो सभी दुख-दर्द दूर जाएंगे।
बाबा बोले – “बच्चा! इस संसार की माया में क्यों फंसे हो?”
नेउर ने सिर झुकाकर कहा – “महाराज अज्ञानी हूं, क्या करूं? स्त्री है उसे कैसे छोड़ दूं?”
बाबा बोले – “तुझे लगता है कि तू स्त्री का पालन करता है?”
नेउर बोला – “तो और कौन सहारा है उसका?”
बाबाजी ने कहा – “ईश्वर ने संसार की रचना की है। वो सबका पालन कर रहा है और तू कहता है कि तू बुढ़िया का पालन कर रहा है। इतना अभिमान कैसे कर सकता है तू?”
नेउर को ज्ञान बोध हुआ। उसने हाथ जोड़ लिए और बोला – “अज्ञानी हूं महाराज!” आंखों से आंसू गिरने लगे। इससे ज्यादा वह कुछ न कह सका।
बाबा बोले – “ईश्वर का चमत्कार ऐसा है कि वो चाहे तो तुझे लखपति कर दे और क्षण भर में सारी परेशानियां खत्म कर दे। मैं मात्र उसका एक भक्त हूं, मुझमे इतनी शक्ति नहीं है कि तुझे पारस बना दूं। तू सच्चा, ईमानदार और साफ दिल का इंसान है। मुझे तुझ पर दया आती है। तेरे पास कुछ चांदी हो, तो बता मैं तुझे अमीर बना दूंगा।” नेउर का मन खुशी से खिल गया।
नेउर बोला – “मेरे पास चंद पैसे हैं और मेरी घरवाली के पास चांदी के कुछ टूटे-फूटे गहने होंगे, मैं ले आऊंगा।”
बाबा बोले – “जितनी चांदी मिल सके कल रात तक ले आ। मैं तेरे सामने चांदी को हांडी में रखूंगा। प्रात:काल हांडी आकर निकाल लेना।” नेउर के चेहरे पर खुशी दौड़ गई।
इतने में बाबा बोले – “लेकिन ध्यान रहे, इन अशर्फियों को जुआ खेलने, शराब पीने या बुरे काम में खर्च मत करना, वरना कोढ़ी हो जाएगा। एक और बात, किसी से इस बात की चर्चा मत करना।”
नेउर वहां से चला आया। खुशी के मारे रात भर उसे नींद नहीं आई। सुबह होते ही वह दो-चार आदमियों के पास उधार मांगने पहुंचा। लोग उसका भरोसा करते थे, इसलिए पैसे दे दिए। नेउर ने किसी तरह पचास रुपये जोड़ लिये। पच्चीस रुपये उसके पास पहले से थे। लेकिन, असल दिक्कत बुढ़िया से चांदी के गहने निकलवाने की थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या बहाना बनाए।
नेउर को एक तरकीब सूझी। वह बुढ़िया से बोला – “तेरे गहने बहुत मैले हो गए हैं, ला मुझे दे, रात भर मैं खटाई की हांडी में डालकर इन्हें साफ कर दूंगा।” बुढ़िया ने गहने दे दिए। देर रात जब वह सो गई, तो नेउर गहने लेकर बाबा जी के पास पहुंचा। बाबा ने मंत्र पढ़ा और हांडी में गहनों को रखकर नेउर को आशीर्वाद देकर विदा किया।
नेउर घर तो लौट आया, लेकिन उसकी नींद गायब थी। वह करवटें बदलता रहा। सुबह तक का इंतजार किए बगैर वह अंधेरे में ही बाबा जी के पास पहुंचा। वहां पहुंचते ही उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। बाबाजी वहां नहीं थे।
नेउर की छाती धक-धक करने ली। वह इधर-उधर बाबा को खोजने लगा। हाट-तालाब सब जगह देख आया, लेकिन बाबा कहीं नहीं मिले।
पूरे गांव में बात फैल गई। सब तरह-तरह की बातें करने लगे। लोगों को लगा कि बाबा जी नेउर को बड़ा पसंद करते थे। उसे जरूर बताकर गए होंगे। नेउर की तलाश करते हुए सभी गांव वाले उसकी झोपड़ी के पास पहुंचे। बुढ़िया बाहर आई।
तभी एक ने कहा – “नेउर ने मुझसे पैसे उधार लिए थे। कहा था शाम को लौटा दूंगा। बगल में खड़े दूसरे आदमी ने भी यही बात कही।”
इतने में बुढ़िया रोने लगी और बोली – “बीते रोज उसने मेरे सारे गहने मांगे थे, अब पता नहीं कहां चला गया। बुढ़िया नेउर को गालियां देने लगी।” अब लोग पूरी कहानी समझ गए। वो जान गए कि बाबा नेउर को ठग कर फरार हो गया है। बेचारा नेउर सीधा आदमी बाबा के झांसे में फंस गया। अब लाज के मारे सामने नहीं आ रहा है।
किसी तरह तीन महीने बीते। झांसी जिले में धसान नदी के किनारे एक छोटा गांव था काशीपुर। वहां नदी किनारे एक पहाड़ी टीला था। एक साधु कई दिनों से वहां ढेरा जमाए बैठा था। नाटा कद, सांवला रंग और गठीले शरीर का आदमी था। यह नेउर था, जो साधु के वेश में अब दुनिया को धोखा दे रहा था।
यह वही नेउर था, जो कभी मेहनती और ईमानदार हुआ करता था। गांव से दूर नई जगह आने के बाद भी उसे अपना घर, गांव और बुढ़िया बहुत याद आते थे। वह हर रोज बस यही सोचता था कि कब वह अपने गांव वापस लौटेगा और खुशी से जीवन बिताएगा। ढोंगी बाबा को याद कर उसका मन दुखी भी होता था। उसका हाल ऐसा था कि अगर अभी वह बाबा को पा जाए, तो उन्हें कच्चा ही खा जाए। खैर यहां बाबा बन कर नेउर किसी तरह गुजर-बसर कर रहा था। उसके भक्तों में एक सुंदर स्त्री शामिल थी, जिसकी शादीशुदा जिंदगी कुछ ठीक नहीं थी। एक दिन पारिवारिक कलह के बाद वह रूठकर मायके आ गई, तब से उसका पति उसे लेने नहीं आया था। वह स्त्री किसी तरह अपने पति को वश में करना चाहती थी।
एक रोज उसने बाबा जी को अपनी समस्या बताई। नेउर को जिस शिकार की आस थी, वह उसे मिलता दिखाई पड़ रहा था। वह गंभीर आवाज में बोला, “बेटी मैं हूं न, मुझ पर भरोसा रख। भगवान ने चाहा, तो सब अच्छा होगा।”
स्त्री बोली – “मेरे भगवान तो आप ही हो। आप जो बोलोगे वही करूंगी।” नेउर मन ही मन खुश हो रहा था।
नेउर ने कहा – “तेरा काम हो जाएगा, लेकिन इसके लिए तुझे बड़ा अनुष्ठान करना पड़ेगा। जिसमें हजारों का खर्च आएगा। उस पर भी तेरा काम सफल होगा या नहीं, यह मैं नहीं बता सकता, क्योंकि सब भगवान के हाथ में है।”
स्त्री किसी तरह अपने पति को वश में करना चाहती थी, इसलिए वह बाबाजी के चरणों में गिर गई और सोने के गहनों की पोटली उनके सामने रख दी। महीनों से जिस समय का इंतजार नेउर कर रहा था, वह आ चुका था, लेकिन उसके हाथ-पांव कांप रहे थे। उसके अंदर अजीब-सी उलझन होने लगी। वह चाह कर भी स्त्री के साथ ठगी नहीं कर पा रहा था। उसके संस्कार उसे इस काम को करने से रोक रहे थे।
अंत में नेउर ने रोते हुए कहा – “बेटी यह पोटली ले जाओ। मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। तुम्हारी मनोकामना जरूर पूरी होगी।” इतना कह कर वह वहां से उठा और गांव की ओर निकल पड़ा। रास्ते में तालाब देख उसने स्नान किया। तिलक-भभूत से उसे घृणा हो रही थी। तकरीबन आठ दिन के लंबे सफर के बाद वह गांव पहुंचा। उसे ऐसा लगा, मानो वह बेड़ियों से आजाद हुआ हो और कोई बड़ी जीत हासिल की हो।
उसके पहुंचने की खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गई। कुछ लड़कों ने उसका स्वागत किया और बताया कि दादी तो मर गई। यह सुनते ही नेउर का संसार उजड़ गया। वह कुछ न बोल सका, आंखें भर आईं। वह दौड़ा-दौड़ा झोपड़ी में पहुंचा। किवाड़ खुला था। बुढ़िया की चारपाई जस की तस थी। चिलम और नारियल भी ज्यों के त्यों धरे हुए थे। इतने में पूरा गांव वहां आ पहुंचा। सवालों की झड़ी लग गई।
किसी ने कहा – “तुम कहां थे नेउर दादा? तुम्हारे जाने के तीन रोज बाद ही दादी चल बसी। दिन-रात तुम्हें कोसती और गालियां देती थी। तुम इतने दिन कहां रहे?”
नेउर के पास कोई जवाब न था। वह कुछ न बोल सका। बिल्कुल मौन हो गया। मानो जिंदा लाश। उस दिन के बाद से किसी ने नेउर को हंसते-बोलते नहीं देखा। वो ना किसी से कुछ कहता और ना कुछ मांगता। गांव के बाहर सड़क किनारे वो बैठ जाता है, जो राहगीर दे जाते, उसी से अपना गुजारा करता। गांव में प्लेग फैल गया, सब गांव छोड़कर भागने लगे, पर नेउर को किसी चीज की परवाह न थी। वह झोपड़ी के बाहर निर्जीव और अचेत पड़ा था।
कहानी से सीख :
मुंशी प्रेमचंद की कहानी नेउर से हमें ये सीख मिलती है कि ईमानदारी और संस्कार सबसे बड़े हैं और इंसान को धन का लोभ नहीं करना चाहिए।