सिंहासन बत्तीसी की नौवीं कहानी – मधुमालती पुतली की कथा
June 17, 2024 द्वारा लिखित nripendra
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नवें दिन राजा भोज दरबार पहुंचे और विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने लगे। इस बार उन्हें नवीं पुतली ने सिंहासन पर बैठने से रोक दिया। उसने कहा, “यहां बैठने के लिए तुम्हें राजा विक्रमादित्य जैसा होना पड़ेगा।” इतना कहकर वह विक्रमादित्य के गुणों को बताने के लिए कहानी सुनाने लगी।
सालों से शासन करते हुए एक बार राजा विक्रमादित्य के मन में हुआ कि प्रजा की खुशहाली के लिए एक यज्ञ करना चाहिए। उन्होंने शुभ मुहूर्त देखकर कई हफ्ते तक चलने वाला विशाल यज्ञ शुरू किया। राजा रोज मंत्रों का उच्चारण करके अग्नि में आहुति देते थे। एक दिन यज्ञ के बीच में ही गुरुकुल के एक ऋषि वहां पहुंचे। उन्हें देखकर राजा विक्रमादित्य उठकर उन्हें नमस्कार करना चाहते थे, लेकिन यज्ञ की वजह से वो ऐसा नहीं कर पाए। उन्होंने मन ही मन ऋषि को प्रणाम किया। राजा की विवशता को देखकर उन्होंने विक्रमादित्य को आशीर्वाद दिया।
कुछ देर बाद यज्ञ खत्म होने पर राजा ने ऋषि को दोबारा प्रणाम किया और आने का कारण पूछा। ऋषि ने बताया, “मेरे आठ शिष्यों का जीवन खतरे में पड़ गया है। वो लकड़ी लेने के लिए जंगल गए थे और तभी वहां दो राक्षस आए और उन सभी को पकड़कर पहाड़ी की ऊंचाई पर ले गए। शिष्यों को ढूंढते हुए जब मैं वहां पहुंचा, तो राक्षस ने बताया कि उन्हें मां काली के समक्ष बलि के लिए तंदुरुस्त क्षत्रिय चाहिए थे, इसलिए उनके शिष्यों को पकड़ा है। साथ ही राक्षसों ने चेतावनी दी है कि अगर कोई वहां उन बालकों को छुड़ाने के लिए गया, तो वो उन्हें पहाड़ी से फेंक देगा। हां, अगर कोई मोटे पुरुष को बलि के लिए लेकर आएगा, तो वो बच्चों को छोड़ देंगे।”
ऋषि की पूरी बात सुनने और उन्हें इस तरह परेशान देखकर राजा विक्रमादित्य ने उस पहाड़ पर जाने की इच्छा जाहिर की। राजा ने कहा, “हे ऋषिवर! मैं क्षत्रिय और हट्टा-कट्टा दोनों हूं। वहां जाकर मैं स्वयं मां की बलि बन जाऊंगा और आपके शिष्यों को राक्षस छोड़ देंगे।” राजा की यह बात सुनकर ऋषि बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, “ऐसा नहीं हो सकता है। मैंने स्वयं को बलि बनाने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन राक्षसों ने ठुकरा दिया। अब स्वयं राजा की बलि न तो राक्षस स्वीकार करेंगे और न मैं ऐसा होने दूंगा। कुछ बच्चों के लिए प्रजा के दाता की बलि चढ़ाना गलत है।”
ऋषि की किसी बात को राजा ने नहीं सुना और पहाड़ पर जाने की जिद करने लगे। आखिर में उन्होंने ऋषि से कहा, “देखिए, मान्यवर राजा का धर्म होता है कि वो प्रजा की रक्षा करे। चाहे उसके लिए राजा को अपनी जान ही दांव पर क्यों न लगानी पड़े।” राजा का हठ देखकर ऋषि उन्हें अपने साथ लेकर चले गए। दोनों कुछ घंटों बाद पहाड़ की चोटी पर पहुंच गए। राक्षसों ने राजा विक्रमादित्य को देखकर पूछा, “यहां आ तो गए हो, लेकिन शर्त के बारे में पता है न।” राजा ने जवाब दिया, “हे राक्षसगण! मुझे सब पता है। मैं अपनी इच्छा से ही यहां आया हूं। अब जल्दी से सारे बच्चों को छोड़ दो।”
राजा विक्रमादित्य की बात सुनकर एक राक्षस सभी बच्चों को लेकर उन्हें पहाड़ी की चोटी से नीचे छोड़ आया। अब जीवन के अंतिम क्षण में राजा ने भगवान को याद किया और मां काली के आगे अपना सिर झुका दिया। तभी दूसरा राक्षस अपनी तलवार लेकर उनके सिर पर प्रहार करने लगा। राजा थोड़े भी परेशान नहीं हुए और लगातार भगवान का नाम जपने लगे। तभी अचानक राक्षस ने अपने हाथों से तलावर को नीचे फेंक दिया।
सिर न कटने पर राजा ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो वो हैरान हो गए। दोनों राक्षस बहुत सुंदर युवराज जैसे दिख रहे थे। उस समय पर्वत की पूरी चोटी चमकने लगी और वातावरण में फूलों की खुशबू फैली गई। राजा कुछ समझ नहीं पाए और आश्चर्य से उनकी तरफ देखने लगे।
तब दोनों ने राजा को बताया कि वो इंद्र और वरुण देवता हैं, जो उनकी परीक्षा लेने के लिए आए थे। दोनों देवों ने कहा, “हमने तुम्हारी बहुत तारीफ सुनी थी, इसलिए देखना चाहते थे कि तुम अपनी प्रजा के लिए क्या कुछ कर सकते हो। अपनी प्रजा के लिए जान दांव पर लगाने में तुम संकोच करोगे या नहीं। हे राजन! आपके अंदर प्रजा के लिए इतना प्रेम देखकर हम बहुत प्रसन्न हैं।” इतना कहने के बाद दोनों देवों ने राजा विक्रमादित्य को आशीर्वाद दिया और अपने लोक चले गए।
कहानी पूरी होते ही नवीं पुतली मधुमालती ने राजा भोज से कहा कि अगर आपके अंदर भी ऐसे गुण हैं, तो ही सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़ना, वरना इस बारे में कभी सोचना भी नहीं। इतना कहकर नवीं पुतली वहां से उड़ गई। नवीं पुतली की बात सुनकर राजा भोज सोच में पड़ गए और वहां से चले गए।
कहानी से सीख:
हिम्मत और साहस से हर परिस्थिति का सामना करना चाहिए। किसी को मुसीबत में अकेले छोड़ने की जगह उसे उससे बचाने की कोशिश की जानी चाहिए।