सिंहासन बत्तीसी की सत्रहवीं कहानी – विद्यावती पुतली की कथा
June 17, 2024 द्वारा लिखित nripendra
राजा भोज एक बार फिर सिंहासन पर बैठने की इच्छा लेकर राजमहल पहुंचे। इस बार सिंहासन से 17वीं पुतली विद्यावती बाहर निकली और राजा भोज को सिंहासन पर बैठने से रोक दिया। 17वीं पुतली विद्यावती ने कहा, “सिंहासन पर बैठने से पहले राजा विक्रमादित्य की यह कहानी सुन लो।” इतना कहकर 17वीं पुतली ने विक्रमादित्य का किस्सा सुनाना शुरू किया।
राजा विक्रमादित्य के राज्य में उनकी प्रजा को किसी बात की कमी नहीं थी। राजा अपनी प्रजा को खूब खुश रखते थे, जब भी उनके दरबार में कोई अपनी परेशानी लेकर आता, तो राजा उसे तुरंत हल कर देते थे। अगर उनकी प्रजा को कोई तंग करता था, तो उसे वो कठोर सजा देते थे। इतना ही नहीं राजा विक्रमादित्य एक आदमी बनकर राज्य का दौरा भी करते थे, इसलिए उनकी प्रजा हमेशा खुश, निडर और संतुष्ट रहती थी।
एक बार राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर अपने राज्य में घूम रहे थे। तभी उन्हें एक झोपड़ी से दो लोगों की आवाज सुनाई दी। उन्होंने सुना कि एक महिला राजा को जाकर कुछ बताने को कह रही थी, लेकिन वो व्यक्ति कह रहा था कि वो अपने स्वार्थ के लिए राजा की जान खतरे में नहीं डाल सकता है।
इन बातों को सुनते ही राजा समझ गए कि उन्हें कोई समस्या है और राजा भी इससे जुड़े हुए हैं। राजा विक्रमादित्य हमेशा अपनी प्रजा की परेशानियों को हल करना अपना कर्तव्य मानते थे। ऐसे में राजा विक्रमादित्य से रहा नहीं गया और उन्होंने झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया। दरवाजे पर आवाज सुनकर ब्राह्मण दंपत्ति ने दरवाजा खोला। उनके दरवाजा खोलते ही राजा विक्रमादित्य ने अपने बारे में बताया और उनकी परेशानी पूछी।
राजा घर आए हैं जानते ही, दोनों पति-पत्नी डर गए। राजा ने उन्हें हिम्मत और भरोसा दिलाते हुए कहा कि आप अपनी बात बिना डरे कह सकते हैं। तब उन्होंने बताया कि उनकी शादी को बारह साल हो गए हैं, लेकिन उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ।
इन बारह सालों में उन्होंने संतान सुख के लिए कई व्रत-उपवास, पूजा-पाठ किए, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। फिर एक दिन ब्राह्मण की पत्नी ने सपना देखा कि एक देवी ने उन्हें कहा है कि तीस कोस दूर पूर्व दिशा में एक घने जंगल में कुछ साधु-संन्यासी शिव की आराधना करते हुए भगवान शिव को खुश करने के लिए वो हवन कुंड में अपने अंगों को काटकर डाल रहे हैं। उनकी तरह ही अगर राजा विक्रमादित्य भी वहां जाकर हवन कुंड में अपने अंग काटकर डाल दे, तो भगवान शिव उनसे खुश होकर उनकी इच्छा पूछेंगे। फिर राजा विक्रमादित्य भगवान शिव से उनके लिए बच्चे की मांग करेंगे। ऐसा करने से उन्हें संतान सुख मिल जाएगा।
इतना सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने ब्राह्मण पति-पत्नी को भरोसा दिलाते हुए कहा कि वो ये सब जरूर करेंगे। इतना कहते ही राजा विक्रमादित्य वहां से निकल गए और रास्ते में बेतालों को याद किया। बेताल उनके सामने प्रकट हुए, तो राजा विक्रमादित्य ने उन्हें हवन की जगह पहुंचाने को कहा। राजा जैसे ही उस जगह पहुंचे, तो उन्होंने पाया कि वहां सच में कुछ साधु बैठकर हवन करते हुए अपने अंगों को काटकर हवन में डाल रहा था।
ये देखते ही राजा विक्रमादित्य भी वहां संन्यासी के बगल में बैठकर उनकी तरह ही अपने अंगों को काटकर हवन कुंड में डालने लगे। जब राजा विक्रमादित्य और साधु सारे जल गए, तो वहां एक शिवगण पहुंचा और सभी साधुओं को अमृत देकर जिंदा कर दिया, लेकिन गलती से उसने राजा विक्रमादित्य को अमृत नहीं दिया।
जब सारे साधु जिंदा हो गए, तो उनका ध्यान विक्रम पर गया, जो राख बन चुके थे। फिर सभी संन्यासियों ने मिलकर शिव की पूजा की और विक्रम को जिंदा करने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना सुन ली और राजा विक्रमादित्य को अमृत डालकर जिंदा कर दिया।
राजा विक्रमादित्य जैसे ही जीवित हुए, तो उन्होंने भगवान शिव के सामने हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर ब्राह्मण दंपत्ति के लिए संतान मांगी। भगवान शिव, राजा विक्रमादित्य के त्याग से खुश हुए और उनकी प्रार्थना सुन ली। इसके कुछ वक्त बाद ही ब्राह्मण दंपत्ति को संतान सुख प्राप्त हुआ।
ये कहानी सुनाते ही 17वीं पुतली विद्यावती ने राजा भोज से कहा, “क्या तुम में भी है ऐसी हिम्मत और त्याग की भावना? अगर हां, तो तुम इस सिंहासन के योग्य हो।” इतना कहने के बाद 17वीं पुतली विद्यावती उस सिंहासन से उड़ गई।
कहानी से सीख :
अगर कोई बिना किसी स्वार्थ के त्याग करता है, तो उसका कभी कुछ बुरा नहीं होता।