सिंहासन बत्तीसी की सोलहवीं कहानी – सत्यवती पुतली की कथा
June 17, 2024 द्वारा लिखित nripendra
राजा भोज दोबारा सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़े। तभी 16वीं पुतली सत्यवती सिंहासन से बाहर आई और राजा भोज को गद्दी पर बैठने से रोकते हुए कहा, “ हे राजन, मैं आपको राजा विक्रमादित्य का एक किस्सा सुनाऊंगी। अगर आपको लगता है कि आप भी उतने ही महान हैं, तो इस सिंहासन पर बैठ जाना।” इतना कहकर 16वीं पुलती सत्यवती ने कहानी सुनाना शुरू किया।
उज्जैन शहर में राजा विक्रमादित्य के शासन काल में उनके न्याय और महानता की चर्चा दूर-दूर तक थी। राजा ने अपने बड़े- बड़े फैसलों और सुझावों के लिए 9 लोगों की समिति बना रखी थी। इन लोगों से ही राजा विक्रमादित्य राज-काज संबंधित सुझाव भी लेते थे। एक बार धन-संपत्ति को लेकर कुछ बात शुरू हुई। तभी पाताल लोक की बात भी सामने आई और एक जानकार ने पाताल लोक के राजा शेषनाग की तारीफ की। उन्होंने बताया कि उनके लोक में सारी सुख-सुविधाएं हैं, क्योंकि वो भगवान विष्णु के खास सेवकों में से एक हैं। शेषनाग का स्थान भगवान के बराबर माना गया है और जो भी उनके दर्शन करता है उसका जीवन धन्य हो जाता है।
इतना सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने पाताल लोक जाकर उनसे मिलने का मन बना लिया। तभी राजा विक्रमादित्य ने अपने बेतालों को याद किया और उनके साथ पाताल लोक पहुंच गए। वहां उन्होंने जानकारों की कही सारी बातों को सही पाया। जब शेषनाग को राजा विक्रमादित्य के आने की खबर मिली, तो वो उनसे मिलने पहुंच गए। राजा विक्रमादित्य ने शेषनाग को नमस्ते करते हुए अपना नाम और पाताल लोक आने का कारण बताया। राजा विक्रमादित्य की बातें सुनकर और उनके व्यवहार से शेषनाग इतने खुश हुए कि राजा विक्रमादित्य को जाते-जाते उपहार के तौर पर चार चमत्कारी रत्न दिए।
चारों रत्न की अपनी-अपनी खूबी थी। पहले रत्न से मनचाहा धन, दूसरे रत्न से मनचाहे कपड़े व गहने, तीसरे रत्न से किसी भी तरह की पालकी, घोड़ा या रथ और चौथे रत्न से मान-सम्मान मिल सकता था। रत्न मिलने के बाद राजा विक्रमादित्य ने शेषनाग को प्रणाम किया और अपने बेतालों के साथ राज्य लौट गए।
चारों रत्न लेकर राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में प्रवेश कर ही रहे थे कि रास्ते में उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण से हुई। ब्राह्मण ने राजा से पाताल लोक की यात्रा के बारे में पूछा। राजा ने वहां हुई सारी बातें बता दी। सब कुछ जानने के बाद अचानक ब्राह्मण ने राजा से कहा कि आपकी हर सफलता में प्रजा का भी सहयोग होता है। ब्राह्मण की इस बात को सुनते ही राजा विक्रमादित्य उनके मन की बात को समझ गए और तुरंत उन्होंने ब्राह्मण को अपनी इच्छा से एक रत्न लेने को कहा। यह देखकर ब्राह्मण थोड़ी उलझन में पड़ गए और उन्होंने कहा कि वो अपने परिवार के हर सदस्य की राय लेने के बाद ही रत्न लेंगे। राजा विक्रमादित्य उनकी बात मान गए।
फिर ब्राह्मण अपने घर पहुंचे और अपने परिवार में पत्नी, बेटे और बेटी को सारी बात बताई। तीनों ने ही तीन अलग-अलग रत्न लेने की इच्छा जताई। ब्राह्मण की उलझन अब और बढ़ गई थी। परिवार वालों की बात सुनकर ब्राह्मण दोबारा राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचे और उन्हें अपनी दुविधा बताई। ब्राह्मण की बात सुनते ही राजा विक्रमादित्य ने हंसते हुए ब्राह्मण को चारों रत्न उपहार के रूप में दे दिए।
इतना कहते ही 16वीं पुतली सत्यवती ने कहा, “क्या तुम भी इतने दानी हो? अगर तुम्हारा दिल भी राजा विक्रमादित्य जितना बड़ा है, तो सिंहासन पर बैठ जाओ। अगर यह गुण तुम में नहीं है, तो इस सिंहासन पर बैठने के लायक बनकर आओ।” इतना कहकर 16वीं पुतली सिंहासन से उड़ गई और एक बार फिर राजा भोज सिंहासन पर नहीं बैठ पाए।
कहानी से सीख:
सच्चा राजा, राजनेता या संचालक वही होता है, जो धन-दौलत का लालच न करते हुए अपनी प्रजा और अपने साथ कार्य करने वालों को प्राथमिकता दे।