आखिर क्यों होता है बेटी और बहू में इतना फर्क?
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“अरे बहू, जरा पानी लाना। देख तो शिल्पा बिटिया कितनी थक-हार कर कॉलेज से आई है।” “बहू आज मेरी बेटी इतने दिनों बाद मायके से आ रही है, आज सारी उसकी पसंद की चीजें बनेंगी।” “बहू, आज इतनी देर हो गई तुझे ऑफिस में, अब जल्दी देख क्या बनाना है, राहुल और उसके पापा बस ऑफिस से आते ही होंगे।” अक्सर सास को कुछ ऐसा ही कहते सुना जाता है। बेशक, अपने बेटे या बेटी से प्यार करना या फिक्र करना गलत नहीं है, लेकिन बहू से भी तो अपनापन दिखाना जरूरी है। सास-बहू के रिश्ते पर न जाने कितने सीरियल और फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन यहां हम सास-बहू की नहीं, बल्कि ससुराल और बहू के बीच नाजुक रिश्ते की बात कर रहे हैं।
इन सवालों के जवाब हैं जरूरी : कुछ लोग कहते हैं, “यह बहू पर निर्भर करता है कि वह घर जोड़कर रखेगी या तोड़कर।” “आजकल की बहुएं एडजस्ट नहीं कर पाती हैं।” “बहू ससुराल को अपना नहीं पाई।” अब सवाल यह उठता है कि क्या बहू को ससुराल में वो सम्मान मिल रहा है, जिसकी वो हकदार हैं? क्या बहू को बराबरी का दर्जा मिल रहा है? क्या चुपचाप बिना शिकायत ससुराल वालों की बात पर चलने को एडजस्टमेंट कहते हैं? क्या ससुराल वालों ने बहू को दिल से अपनाया है? ये सारे सवाल पूरे समाज के लिए हैं। ससुराल और बहू का रिश्ता किसी रबड़ से कम नहीं है। इसे एक तरफ या दोनों तरफ से जितना खिंचा जाए, टूटने का डर उतना ज्यादा होता है।
बहू के देर से आने पर ऐतराज : बेटी या बेटा थक हारकर घर आए, तो उसे आराम करने को कहा जाता है। वहीं, अगर बहू ऑफिस से घर आने में देरी हो जाए, तो ससुराल वालों की तरफ से सवाल उठ जाता है “ऐसा क्या काम आ गया कि इतनी देर हो गई?” बेटी अगर ससुराल से कुछ दिनों बाद आए, तो मां की इंतजार करती आंखें भर आती हैं। वहीं, अगर बहू मायके जाने की बात कहे, तो सास की भौंहे तन जाती हैं।
जोरू का गुलाम : अगर बेटी के घर जाकर दामाद को बेटी का हाथ बंटाते देखें, तो माता-पिता गर्व से भर जाते हैं। वहीं, माता-पिता अपने बेटे को बहू का हाथ बंटाते देखें, तो बेटे को कहते हैं कि वो बदल गया है। बेटे को “जोरू का गुलाम” तक बोलकर ताना मारने लगते हैं।
आखिर क्या है समाधान?
बदलाव है आसान : अगर ससुराल वाले बहू से उम्मीद करते हैं कि वो उन्हें अपने मां-बाप की तरह समझे, तो उन्हें भी अपनी बहू को बेटी मानने के लिए तैयार होना होगा। उन्हें समझना होगा कि एक बहू भी बेटी बन सकती है, क्योंकि उनके बेटी के जाने के बाद बहू ही होती है, जो जिंदगीभर उनके बारे में सोचेगी। जितना प्यार और जितना दुलार आप अपनी बेटी से करते हैं, उतने ही स्नेह की हकदार बहू भी है। साथ ही बहू का भी फर्ज बनता है कि वह अपने सास-ससुर का उचित सम्मान करे और हर सुख-दुख में उनके साथ खड़ी रहे।
हम ये नहीं कहते कि हर घर में बहुओं के साथ ऐसा ही होता है। कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जो बहू को और उसकी पसंद-नापसंद को सबसे ऊपर रखते हैं। हमारा बस इतना ही कहना है कि ससुराल वालों को बहुओं के प्रति अपनी विचारधारा को थोड़ा-सा बदलने की जरूरत है। अगर बहू से घर संवारने की उम्मीद की जा रही है, तो ससुराल वालों को भी बहू को दिल से अपनाना जरूरी है। बहू को बेटी बनाना जरूरी है, तभी बहू से वो सम्मान मिल सकेगा, जिसकी उम्मीद सभी करते हैं। इस लेख से हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। सिर्फ समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाना है।
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